उत्तर प्रदेश की आबकारी नीति पर सवाल: वेस्ट यूपी में शराब कंपनियों का ‘एकाधिकार’! नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाज़ियाबाद, मेरठ, बुलंदशहर और हापुड़ — में दर्जनों शराब कंपनियाँ नेटवर्क बनाकर ठेकों पर कब्ज़ा जमाए बैठी हैं।
रिपोर्टर :मुकुल तिवारी
लखनऊ/नोएडा।
उत्तर प्रदेश की आबकारी नीति हर साल सरकार की मंज़ूरी से लागू होती है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका संचालन कई गंभीर सवाल खड़े कर रहा है। वेस्ट यूपी के जिलों — नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाज़ियाबाद, मेरठ, बुलंदशहर और हापुड़ — में दर्जनों शराब कंपनियाँ नेटवर्क बनाकर ठेकों पर कब्ज़ा जमाए बैठी हैं।
स्थानीय सूत्रों और फील्ड रिपोर्ट्स के मुताबिक, सोनू गोयल ग्रुप, चड्ढा ग्रुप, सोनू गुप्ता ग्रुप, महालक्ष्मी ग्रुप, सिंगला ग्रुप, मोंटी ग्रुप, ज्ञानेंद्र ग्रुप और मैडम चड्ढा कंपनी ग्रुप जैसे बड़े नाम पूरे वेस्ट यूपी के शराब कारोबार पर हावी हैं।
🔹 आबकारी नीति बनती कहाँ है?
उत्तर प्रदेश की आबकारी नीति (Excise Policy) राज्य सरकार द्वारा तैयार की जाती है। यह उत्तर प्रदेश शासन के आबकारी विभाग (Excise Department, Govt. of U.P.) के अधीन आती है।
नीति निर्माण: शासन स्तर पर मुख्य सचिव, आबकारी आयुक्त, वित्त विभाग और मुख्यमंत्री की स्वीकृति से होता है।
क्रियान्वयन: जिलों में जिला आबकारी अधिकारी और उनके अधीन निरीक्षक (Excise Inspector) करते हैं।
अवधि: हर वित्तीय वर्ष (1 अप्रैल से 31 मार्च) तक लागू रहती है।
📍 यानी नीति लखनऊ में बनती है, लेकिन उसका अमल जिलों में अधिकारियों और कंपनियों के गठजोड़ से तय होता है।
🔹 “ई-लॉटरी” और “कंपनियों के ठेके” का खेल
सरकार के नियम के अनुसार, शराब की दुकान का लाइसेंस ई-लॉटरी प्रणाली से किसी व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है ताकि कोई कंपनी ज़्यादा ठेके न ले सके।
लेकिन वास्तविकता में तस्वीर अलग है —
1. कई कंपनियाँ अलग-अलग नामों से आवेदन दाख़िल करती हैं, ताकि लॉटरी में उनके ही ग्रुप को ज़्यादा ठेके मिलें।
2. ठेके मिलने के बाद “ऑपरेटिंग एग्रीमेंट” के ज़रिए कंपनियाँ दुकानों का संचालन अपने नियंत्रण में ले लेती हैं।
👉 यानी लाइसेंस किसी व्यक्ति के नाम पर, लेकिन कारोबार किसी बड़े ग्रुप के अधीन चलता है।
3. इस सिस्टम के कारण कुछ कंपनियों के पास 100 से ज़्यादा ठेके तक पहुँच जाते हैं, जबकि नीति के अनुसार यह संभव नहीं होना चाहिए।
🔹 आबकारी विभाग की “बेनियाज़ी” या “मिलीभगत”?
जब आबकारी अधिकारियों से इस व्यवस्था के बारे में सवाल किया जाता है, तो जवाब मिलता है —
> “हमारे पास कंपनियों की कोई जानकारी नहीं, ठेके तो व्यक्ति के नाम पर जारी होते हैं।”
लेकिन हकीकत यह है कि हर ठेके पर कंपनी के जीएम, इंचार्ज, कैश हेड और ट्रांसपोर्ट नेटवर्क का पूरा ढांचा मौजूद रहता है।
अधिकारियों का रोज़ाना इन कंपनियों से सीधा संपर्क होता है — यह साफ़ संकेत है कि ऊपर तक किसी का संरक्षण है।
🔹 जिलों में शराब ठेकों की ग्राउंड रियलिटी
ज़िला प्रमुख शराब समूह अनुमानित ठेके
गौतमबुद्धनगर (नोएडा/ग्रेटर नोएडा) सोनू गोयल ग्रुप, चड्ढा ग्रुप, सिंगला, सोनू गुप्ता, मोंटी, ज्ञानेंद्र, मैडम चड्ढा 100+
गाज़ियाबाद महालक्ष्मी, गोयल, चड्ढा 60–80
मेरठ चड्ढा, गोयल 50–70
बुलंदशहर, हापुड़ गोयल, चड्ढा ग्रुप 30–50
(आंकड़े स्थानीय फील्ड रिपोर्ट्स और मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित)
🔹 संभावित गड़बड़ी और घोटाले के संकेत
1. ई-लॉटरी सिस्टम को दरकिनार कर फर्जी फर्मों से आवेदन कराना।
2. लाइसेंस धारक व्यक्ति और वास्तविक संचालक कंपनी अलग होना।
3. आबकारी अधिकारियों की मिलीभगत या राजनीतिक संरक्षण।
4. बाज़ार में एकाधिकार (Monopoly) बनाकर रेट और सप्लाई पर नियंत्रण।
5. राज्य सरकार को राजस्व का नुकसान और उपभोक्ताओं पर ओवररेटिंग का बोझ।
🔹 नतीजा
कानून कहता है कि एक व्यक्ति या संस्था को सीमित ठेके मिल सकते हैं, लेकिन हकीकत में कुछ कंपनियाँ पूरे ज़िले का 60–70% शराब नेटवर्क अपने कब्जे में रखती हैं। यह न केवल आबकारी नीति की भावना के खिलाफ है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि —
> क्या “ई-लॉटरी” के नाम पर कहीं कोई बड़ा खेल तो नहीं चल रहा?
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